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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


घरजमाई--मुंशी प्रेमचंद

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हरिधन तो उधर भूखा-प्यासा चिन्ता-दाह में जल रहा था, इधर घर में सासजी और दोनो सालो में बाते हो रही थी। गुमानी भी हाँ-में-हाँ मिलाती जाती थी।
बड़े साले ने कहा- हम लोगों की बराबरी करते हैं। यह नही समझते कि किसी ने उसकी जिन्दगी-भर का बीड़ा थोड़े ही लिया हैं। दस साल हो गयं। इतने दिनों में क्या दो-तीन हजार न हड़प गयें होंगे?
छोटे साले ने कहा- मजूर हो तो आदमी घुड़के भी, ड़ाँटे भी, अब इनसे कोई क्या कहें। न जाने इनसे कब पिंड छूटेगा भी या नहीं? अपने दिल में समझते होंगे, मैंने दो हजार रुपयें नहीं दिये हैं? यह नहीं समझते कि उनके दो हजार रुपये कब के उड़ चुके हैं। सवा सेर तो एक जून को चाहिए।
सास गम्भीर भाव से बोली - बड़ी भारी खोराक है!
गुमानी माता के सिर से जूँ निकल रही थी। सुलगते हुए हृदय से बोली - निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है!
बड़े- खाने की कोई बात नही हैं। जिसको जितनी भूख हो उतना खाये लेकिन कुछ पैदा करना चाहिए। यह नही समझते कि पहुनई में किसी के दिन कटे है!
छोटे - मैं तो एक दिन कह दूँगा; अब आप अपनी राह लीजिए, आपका करजा नही खाया हैं।
गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बाते सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी। अगर वह बाहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान-सम्मान होता, वह भी रानी बन कर रहती। न जाने क्यों कहीं बाहर जाकर कमाते उसकी नानी मरती हैं। गुमानी की मनोवृत्तियाँ अभी तक बिल्कुल बालपन की-सी थी। उसका अपना कोई घर न था। उसी घर का हित-अहित उसके लिए भी प्रधान था। वह भी उन्हीं शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्हीं आँखों से देखती, जैसे उसके घरवाले देखते थे। सच तो है, दो हजार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे? दस साल में दो हजार रुपये होते ही क्या है? दो सौ ही तो साल-भर के हुए। क्या दो आदमी साल-भर में दो सौ भी न खाएँगे? फिर कपड़े-लत्ते, दूध-घी सब कुछ तो हैं। दस साल हो गये, एक पीतल का छल्ला नहीं बना। घर से निकलते तो जैसे इनके प्राण निकलते है। जानते है, जैसे पहले पूजा होती थी, वैसे ही जन्म-भर होती रहेगी। यह नही सोचते कि पहले और बात थी; अब और बात है। बहू ही पहले सुसराल जाती है, तो उसका कितना महातम होता है। उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गाँव-मुहल्ले की औरतें उसका मुँह देखने आती हैं और रुपये देती हैं। महीनों उसे घर-भर से अच्छा खाने को मिलता हैं, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं लिया जाता; लेकिन छः महीने बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता, वह घर-भर की लौड़ी हो जाती हैं। उनके घर में मेरी तो वही गति होती। फिर काहे को रोना। जो यह कहो कि मैं तो काम करता हूँ, तो तुम्हारी भूल है, मजूर और बात हैं। उसे आदमी डाँटता भी हैं, मारता भी है , जब चाहता है रखता हैं, जब जी चाहता हैं निकाल देता हैं। कसकर काम लेता हैं। यह नहीं कि जब जी में आया, कुछ काम किया, जब जी में आया, पड़कर सो रहे।

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